शिष्यता एवं सात सूत्र (Shishyata Evam Saat Sutra)
शिष्य का तात्पर्य किसी देह से नहीं हैं, शिष्य का तात्पर्य खड़े होकर हाथ जोड़ने से नहीं हैं, शिष्य का तात्पर्य कोई दीक्षा लेने से भी नहीं हैं। यह तो एक भाव हैं कि हम दीक्षा लेकर अपने आपको पूर्ण रूप से गुरु चरणों में विसर्जित करके गुरु से एकाकार हो जायें, वहां से तो हमारी शिष्यता प्रारंभ होती हैं।
शिष्य का वास्तविक तात्पर्य हैं गुरु के अनुरूप बनना, और आज्ञा पालन करना और एकमात्र आज्ञा पालन करना ही शिष्य का परम कर्त्तव्य हैं। यदि हमने तर्क-वितर्क किया तो हम शिष्यता की भावभूमि से परे हट जाते हैं। शिष्य शब्द बना ही हैं आज्ञा पालन से, निरंतर उनकी सेवा करने से सेवा और आज्ञा पालन ये दो साधन हैं, जिनके माध्यम से शिष्य आगे की ओर अग्रसर होता हुआ पूर्णता प्राप्त कर सकता हैं। जो सेवा नहीं कर सकता, वह समर्पण भी नहीं कर सकता और जहाँ समर्पण नहीं हैं, वहां शिष्यता भी नहीं हैं।
शिष्य का तात्पर्य हैं “त्याग” – सब कुछ त्याग करने की जिसमें क्षमता होती हैं, वही शिष्य कहला सकता हैं। शिष्य बनना इतना आसान नहीं हैं यह तो अपने आप को फ़ना कर देने की क्रिया हैं। गुरु और शिष्य के बीच स्वार्थ का कोई सम्बन्ध नहीं होता। यदि व्यक्ति हुलसता हुआ, प्रसन्नता के अतिरेक में गुरु के चरणों में पहुँच जाता हैं, और उनके चरणों में झुक कर मंदिर, मस्जिद, काशी और काबा, हरिद्वार और मथुरा के दर्शन कर लेता हैं, सारे देवी और देवताओं के दर्शन कर लेता हैं, तब वह सही अर्थों में शिष्य हैं।
भगवत्पाद शंकराचार्य ने “शिष्य”, और सही मायने में कसौटी पर खरे उतरने वाले शिष्य के सात सूत्र बताए हैं, जो निम्न हैं। आप स्वयं ही मनन कर निर्णय करें कि आपके जीवन में ये कितने संग्रहित हैं।
- अन्तेश्रियै व – जो आत्मा से, प्राणों से, हृदय से अपने गुरुदेव से जुड़ा हो, जो गुरु से अलग होने की कल्पना करते ही भाव विह्वल हो जाता हो।
- कर्तव्यं श्रियै न – जो अपनी मर्यादा जानता हो, गुरु के सामने अभद्रता, अशिष्टता का प्रदर्शन न कर पूर्ण विनीत नम्र पूर्ण आदर्श रूप में उपस्थित होता हो।
- सेव्यं सतै दिवौं च – जिसने गुरु सेवा को ही अपने जीवन का आदर्श मान लिया हो और प्राण प्रण से गुरु की तन-मन-धन से सेवा करना ही जीवन का उद्देश्य रखता हो।
- ज्ञानामृते वै श्रियं – जो ज्ञान रुपी अमृत का नित्य पान करता रहता हैं और अपने गुरु से निरंतर ज्ञान प्राप्त करता ही रहता हैं।
- हितं वै हृदं – जो साधनाओं को सिद्ध कर लोगों का हित करता हो और गुरु से निरंतर ज्ञान प्राप्त करताही रहता हैं।
- गुरुर्वे गति – गुरु ही जिसकी गति, मति हो, गुरुदेव जो आज्ञा दे, बिना विचार किए उसका पालन करना ही अपना कर्तव्य समझता हो।
- इष्टौ गुरुर्वे गुरु – जिस शिष्य का इष्ट ही गुरु हो, जो अपना सर्वस्व गुरु को ही समझता हो।
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ज्योतिष आचार्या
ममता वशिष्ट
अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक
कालका ज्योतिष अनुसन्धान संसथान